छले 25 वर्षों से भोपाल के गैस पीड़ित न्याय के लिए आंदोलनरत हैं। यह आंदोलन अपने आप में विशिष्ट है सिर्फ इस लिए नहीं कि इसमें बहुत से मुद्दों जैसे कि मुआवजा, रोजगार, राशन, पेंशन, स्वास्थ्य सेवा, जल संदूषण तथा वातावरण सुधार को शामिल किया गया है। यह इसलिए भी विशिष्ट है कि इस आंदोलन में प्रमुख तौर पर अल्पशिक्षित गरीब स्त्रियाँ शामिल हैं जो रसायन अभियांत्रिकी, वातावरण प्रदूषण, कानूनी तर्कों तथा चिकित्सा विज्ञान जैसे जटिल मुद्दे उठाए हुए हैं।
द भोपाल सर्वाइवर्स मूवमेंट स्टडी द्वारा इस संघर्ष का दस्तावेजीकरण इस आंदोलन के उत्तरजीवित-कार्यकर्ताओं तथा उनके समर्थकों के साक्षात्कारों के जरिए किया जा रहा है। इस शोध की एक बड़ी मंशा यह भी है कि इस बात की पड़ताल की जाए कि अति अल्प शिक्षित जनता ने इस संघर्ष में किस तरह जुड़ना सीखा।
1984 में जब गैस त्रासदी हुई, साक्षरता अत्यंत निम्न थी। 1981 की जनगणना के हिसाब से मध्यप्रदेश की साक्षरता 34% थी जिसमें महिलाओं की साक्षरता मात्र 19% थी। यहाँ तक कि स्कूल जाने वाली महिलाओं की सामाजिक रूढ़िवादिता उनके शिक्षा के स्तर पर सीमित थी। भोपाल एक अत्यंत तीव्रगति से फैलता शहर था जिसमें मध्यप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन का दर अपेक्षाकृत ऊँचा था। यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री शहर के उत्तरी दिशा में था। गैस त्रासदी का एक बड़ा प्रभाव गरीब, दिहाड़ी कामगारों तथा अत्यल्प शिक्षित लोगों पर पड़ा था।
त्रासदी के समय की अपनी अज्ञानता का बयान बहुत से उत्तरजीवित कार्यकर्ता करते हैं। ट्रेड यूनियन भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन की शुरूआती कार्यकर्ता रेहाना बेगम जिसने त्रासदी से पहले अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण कर ली थी, शिक्षा के भिन्न स्तरों के उत्तरजीवितों के दृष्टिकोण को कुछ इस तरह से बयान करती हैं:
“हमें यूनियन, राज्य या फिर राज्य के मुख्यमंत्री इत्यादि की अवधारणा के बारे में कुछ भी नहीं पता था… आमतौर पर हम मुसलमान घरेलू महिलाएँ थीं, जिनके पास बातचीत या प्रचार या किसी भी अन्य बातों का कोई भान ही नहीं था।”
बहुत सी ऐसी महिलाएं जो अल्प शिक्षित हैं या अशिक्षित हैं उनकी कहानियाँ बड़ी प्रभावशाली रही हैं जिन्होंने राज्य तथा मल्टीनेशनल कार्पोरेशन के सामने अपनी बातें रखनी सीखीं।
संघर्ष के समय सीखने की पहली तथा संभवत: प्रमुख बात जेम्स सी स्काट ने बताया है – “कमजोर का शस्त्र” – उत्पीड़न को दिन पर दिन लचीला रुख बनाकर सह लेना। राबिया बी बताती हैं कि कैसे उन्होंने खुद सीखा और अपने साथी कामगारों को सिखाया कि आर्थिक पुनर्वास के लिए बनाए गए स्वावलंबन ड्रेस निर्माण केंद्रों में फैले भ्रष्टाचार से कैसे फायदा उठाया जाए:
“केंद्र का पूरा तंत्र भ्रष्ट था। शीर्ष क्रम के लोग हर तरफ से पैसा बना रहे थे। वे हर स्तर से कमीशन पा रहे थे। जब भी सामानों के लिए टेंडर होते थे तो अराजकता मचती थी, लोगों को बटन जैसे छोटी से छोटी चीज पर भी कमीशन हासिल होती थी। तो मैंने वहाँ काम कर रही महिलाओं के लिए अतिरिक्त कमाई के तरीके जुगाड़े। मैंने उन्हें बताया कि वे किस तरह से अतिरिक्त आय के लिए कपड़े के चिंदों की बचत कर सकती हैं। उस समय ढेरों घोटाले होते थे – केंद्र के लिए जारी कपड़े के थान रास्ते में ही चोरी हो जाते थे। जब ऊपर बैठे सभी लोग पैसा बना रहे थे तो फिर हम भी क्यों न कुछ पैसे बना लें?”
परंतु रोज का यह लचीलापन शोषण के मुकाबले पूरी तरह अपर्याप्त था। लचीलापन अंतत: प्रतिरोध में परिवर्तित होता चला गया। राजनैतिक विरोध के लिए कौशल और रणनीति को सामान्य ज्ञान, ट्रायल एंड एरर, दोस्ताना सलाह, भरोसेमंद समर्थकों के मार्गदर्शन और थोड़ी सी अक्लमंदी से प्राप्त किया गया।
हमीदा बी, जिसकी शादी 11 वर्ष की उम्र में ही कर दी गई थी, और जो 14 वर्ष की उम्र में मां बन गई थी, पारंपरिक रूप से अत्यल्प शिक्षित थी। परंतु भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन में उनकी अपनी सक्रियता के चलते उनके लिए ज्ञान के अनेक कपाट खुलते गए। वे जोर देती हैं –
“हम अपनी बैठकों में स्त्रियों के अधिकारों से जुड़ी समस्याओं जैसे कि दहेज प्रथा, उत्पीड़न इत्यादि मुद्दे उठाते थे। हमने अन्य आंदोलन जैसे कि नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) का भी समर्थन किया है। शंकर गुहा नियोगी के भिलाई आंदोलन को बीजीपीएमयूएस से समर्थन मिला”
कुछ समूहों के लिए आंदोलन में सीखना एक तरह से अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों के संपर्क में जुड़ना रहा है। भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी यूनियन की रशीदा बी अंतरराष्ट्रीय समूहों जैसे कि ग्रीनपीस के साथ काम कर चुकी हैं। वे कहती हैं:
“यूनियन कार्बाइड की दीवार के आसपास बहुत से लोग थे जो बीमार हो गए थे। वे क्यों बीमार हो रहे थे? 1999 की रपट के बाद यह साबित हो गया कि पानी संदूषित है। जल संदूषण के बारे में सुन सुनकर इतने वर्षों में जो मैंने जाना और सीखा उससे मैंने पाया कि यह तो दुनिया को बचाने जैसा काम है। मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि जो संदूषण फैलाते हैं, कानूनन उन्हें इसका मुआवजा देना ही चाहिए।”
अनौपचारिक शिक्षा संकीर्ण नहीं है। यह सिर्फ संघर्ष के लिए लागू नहीं है, और न ही इस बात के लिए कि इसके लिए क्या सर्वोत्तम है, बल्कि इस लिए भी कि अन्य मुद्दे भी उत्तरजीवितों के मन में हैं। हमारे साक्षात्कारों से कुछ दिलचस्प बहसें उजागर हुईं। हिन्दू और मुसलिम दोनों ही अपने धार्मिक कर्मकाण्डों को नए सिरे से पारिभाषित करते नजर आए जिसमें दमनकारी तत्वों को नकारने का भाव रहा था।
उदाहरण के लिए राबिया बी बुरका पहनने की प्रथा की आलोचना कुछ इस तरह करती हैं:
“मैं संगठन में बुरका पहनकर ही पहली मर्तबा शामिल हुई क्योंकि मेरे पति एक मौलवी थे, और मैं बहुत ही रूढ़िवादी परिवार से थी। जल्द ही मैंने बुरका पहनना छोड़ दिया क्योंकि समाज में बुरकानशीं औरतों को बहुत ही निम्न नजरों से देखा जाता है। उन्हें मूर्ख, अनपढ़ और अशिष्ट माना जाता है। जब हम बुरका पहनकर शासकीय कार्यालयों में जाते थे तो अफसर हमसे बहुत ही बुरी तरह से पेश आते थे। जबकि साड़ी पहन कर जाने पर वे सम्मान पूर्वक व्यवहार करते थे। यह कोई सांप्रदायिक बात नहीं है, बल्कि यह सामाजिक अनुकूलन जैसा है।”
आईसीजेबी की हाजरा बी धार्मिक प्रथा के पीछे इन नवसुधार पर विचार करती हैं:
“बुरका का उद्देश्य है पर्दा। किसी औरत के लिए जो बुरका ओढ़ती है, उसके लिए बुरका एक पर्दा है। बुरका का अर्थ ये है कि चेहरे पर घूँघट डाल लिया जाए जिसे अपरिचित पुरुषों के सामने नहीं उठाया जाए। इस संसार में हर किस्म की पर्दा प्रथा है और कई मुश्किल परिस्थितियों में पर्दानशीं महिलाओं को बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ता है। बहुत सी महिलाएँ कामगार हैं जो सिलाई, कढ़ाई, बुनाई का काम करती हैं या दिहाड़ी काम करती हैं या घरों में झाड़ू-बर्तन-पोंछा का काम करती हैं। वो अपने घर से बुरके में निकलती है, काम पर बुरका फेंक निकालती है, और जब वो अपना काम खत्म कर फिर वापस घर के लिए निकलती है तो बुरका ओढ़ लेती है।
तो मुझे लगता है कि यदि कोई महिला अपने अधिकारों के लिए खड़ी होती है, या वो अपने परिवार का भरण पोषण करती है या वो अपने बच्चों की देखभाल करती होती है तो उसे बुरका पहनने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। जब वो कमाने धमाने के लिए बाहर निकलती है तो फिर बुरके का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए। मुझे इस तरह के बुरके में कोई विश्वास नहीं है। बुरका या पर्दा वहीं ठीक है जहाँ औरत अपने पति पर निर्भर है और घर की चारदीवारी के भीतर होती है।”
कार्यकर्ता जिस तरीके से राजनैतिक संघर्ष में शामिल होकर अपारंपरिक शिक्षा प्राप्त करते हैं, वह हम सब के लिए, जो कि पेशेवराना जिम्मेदारियों में पारंपरिक शिक्षित होते हैं, एक महत्वपूर्ण पाठ है। उनके संघर्ष को समर्थन देने के लिए शैक्षणिक ज्ञान व प्रशिक्षण लाने के लिए सामाजिक आंदोलनों में जुटने के लिए पारंपरिक बुद्धिजीवियों के लिए भूमिकाएँ हैं।
हालांकि राबिया बी चेताती हैं,
“मैंने जाना है कि अनपढ़ व्यक्ति किसी शिक्षित व्यक्ति के मुकाबले बड़ा खतरा है। शिक्षित सोचते हैं कि वे अपनी विद्वता का प्रयोग दूसरों को उल्लू बनाने में कर सकते हैं।”
अब्दुल जब्बार के लिए, पारंपरिक रूप से शिक्षित लोगों से सीखने में बड़ा जोखिम है।
“आंदोलन के प्रथम 10 वर्षों में ऐसा लगा था कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के तर्ज पर सक्रिय बुद्धिजीवियों को जोड़ा जाना उत्तम विचार है। पर अब ऐसे लोग भोपाल गैस आंदोलन को नकार रहे हैं और वे इसे उपद्रव के रूप में देखने लगे हैं। उनमें इसके संघर्ष का माद्दा ही नहीं है। मुझे लगता है कि वे एक आम आदमी की समस्या से जुड़ नहीं पा रहे चूंकि उनका अनुभव पूरी तरह से किताबी है…अंग्रेज़ों के राज में आमतौर पर बुद्धिजीवी सिस्टम में महत्वपूर्ण पदों पर पदस्थ थे और वे स्वतंत्रता आंदोलन की राह में प्रमुख रोड़े थे। ठीक ऐसा ही फ्रांसीसी क्रांति और रूसी क्रांति के समय हुआ था। बुद्धिजीवी हमेशा शासकों का साथ देते हैं। तो मैं यह कह सकता हूं कि अशिक्षित जनता जिसके पास ‘साहित्यिक’ ज्ञान नहीं होता, वही शिक्षित जनता की अपेक्षा ज्यादा न्याय ला सकती है।
मैंने यह महत्वपूर्ण बात अपने गुरु शंकर गुहा नियोगी (छत्तीसगढ़ के भिलाई संगठन आंदोलन के नेता जिसकी हत्या कर दी गई थी) से सीखी थी। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि विश्व की सभी बड़ी समस्याएँ शिक्षित वर्गों द्वारा ही सृजित हैं।”
इंफोचेंज इंडिया से पूर्वानुमति से प्रकाशित। हिन्दी अनुवाद के लिये रवि रतलामी जी का शुक्रिया! यह आलेख प्रकाशित होने वाली पुस्तक – भोपाल सर्वाइवर्स स्पीक : इमर्जेंट वाइसेस फ्रॉम ए पीपुल्स मूवमेंट के अंश हैं।
उस भयावह त्रासदी से जुड़े एक नए दृष्टिकोण को सामने रखने के लिए शुक्रिया। रविभाई को भी धन्यवाद।