“दीपांजलि बात करती है कि धीरे धीरे पंचायत और पंचायत समिति के पुरुष सदस्य उससे कटते जा रहे हैं, विषेशकर धनुर्जय पटेल जो कि सरकारी नौकरी में हैं, जिसकी वजह से उनके पास बहुत ताकत है। जब किसी बात पर उनके विचार नहीं मिलते तो धनुर्जय पटेल उसका कड़ा विरोध करते हैं। पटेल के अपने विचार हैं, वह कहते हैं – पुरुष सरपंच बेहतर होते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता कि किस तरह से काम किया जाये। महिला सरपंचों को कुछ अधिक नहीं आता। हमें उन्हें सिखाना पड़ता है। कभी कभी वह चालाकी दिखाती हैं और कैसे काम किया जाये इस बात के निर्देश ही भूल जाती हैं।

…वह लोग अफवाह फ़ैला रहे हें कि दीपांजलि का नये बीडीओ के साथ चक्कर है, क्योंकि वह उसकी बात सुनता है, औरों की नहीं। उसके पति को मालूम है कि लोग बातें कर रहे हैं। वह कहते हैं कि उसका चक्कर है…! इस नये शोषण का अर्थ दीपांजलि अच्छी तरह समझती है। उसके घावों में घुसा कर चाकू घुमाने वाली बात है। वह सरपंच है पर साथ ही पत्नी, माँ, स्त्री भी तो है – शरीर, सेक्स और लिंग।”

गरीब, जन जातिय, दलित परिवारों से आयी बहुत सी महिलाएँ अनगिनत कठिनाईयों के बीच भी सदियों से परम्पराओं की रूढ़ियों में जकड़े ग्रामीण भारत को धीरे धीरे बदल रहीं हैं।
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रतीय समाज में नारी के स्थान की बात हो तो अक्सर गार्गी, दुर्गा, शक्ति से ले कर विज्ञान, तकनीकी, शौध, गणिकी जैसे क्षेत्रों में काम करने वाली युवतियों से हो कर, इंदिरा गाँधी, मायावती जैसी नेताओं के उदाहरण दे कर हम अपना गर्व व्यक्त करते हैं कि भारत ने इस दिशा में कितनी तरक्की की है, कैसे हर क्षेत्र में नारियाँ पुरुषों से कदम से कदम मिला कर बढ़ रही हैं। इस बदलते भारत में जहाँ एक ओर नारी विकास और प्रगति की बात होती है, वहीं दूसरी ओर दहेज के लिए पीड़ित होने वाली या जला दी जाने वाली औरतों की बात भी होती है। अल्ट्रासाउंड जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से होने वाली भ्रूण हत्याओं की बात भी होती है। लेकिन यह सब बातें अधिकांश छोटे बड़े शहरों में रहने वाली औरतों की होती है। भारत के गाँव कितना बदल रहे हैं और गांवों में रहने वाली औरतों की स्थिति क्या है, इस पर बात या तो कम होती है या फिर बिल्कुल नहीं होती।

गाँवों में रहने वाली इन्हीं औरतों की बात करती है 2009 में हार्पर कॉलिंस द्वारा प्रकाशित व मंजिमा भट्टाचार्य द्वारा संपादित पुस्तक “सरपंच साहिब ‍ चेंजिंग द फेस आफ इंडिया”। पिछले दो दशकों में कुछ औरतों ने घर के दायरे से बाहर निकल कर पंचायती राजनीति में कदम रखा है और चुनावों में सफलता भी पायी है, और सरपंच बन कर ग्रामीण भारत को बदलने की कोशिश कर रही हैं। उन्हीं औरतों की कुछ जीवन कथाएँ हैं इस किताब में।

sarpanch_sahib1993 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय संविधान में 73वाँ सँशोधन किया जिसमें पंचायती राज के लिए चुनावों की बात थी और इन चुनावों में एक तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित की गयी थीं। इस बदलाव को “मौन क्रांति”, “हमारे समय का सबसे बड़ा सामाजिक प्रयोग” और “जनता के स्तर पर होने वाले जनतंत्र का दुनिया का सबसे बेहतरीन नवप्रयोग” आदि कहा गया है। इस कानून की वजह से 30 लाख महिलाएँ राजनीति में आयी हैं जिसमें से करीब दस लाख से अधिक महिलाएँ चुनाव में जीत कर पंचायती राज का हिस्सा बनी हैं। दूसरी ओर, इस प्रयोग को “दिखावा” भी कहा गया है और आरोप लगाया गया है कि असली ताकत तो पतियों, पिताओं व ससुरों के हाथों में है जिनके हाथों में यह चुनी हुई महिलाएँ केवल कठपुतलियाँ भर होती हैं।

सन 2006-07 की पंचायती राज की स्थिति की रिपोर्ट में पाया गया था कि विभिन्न राज्यों में पंचायत सदस्यों में महिलाओं की संख्या आरक्षित सीटों को पार कर चुकी है, पंचायतो़ में 37 से 54 प्रतिशत सदस्य महिलाएँ हैं। 2008 में लिखी एक अन्य जाँच में पाया गया कि इनमें से अधिकतर महिलाएँ निर्णय लेने के लिए अपने पति या अन्य पुरुषों पर निर्भर नहीं हैं, अपने निर्णय स्वयं लेती हैं। लेकिन इन रिपोर्टों के बारे में जनसामान्य में कुछ न कुछ शंका ही रहती है, न जाने सरकारी जाँच कितना सच बताती हैं और कितना झूठ।

मंजिमा की किताब में ऐसी ही कुछ महिला सरपंचों की कहानियाँ है जिन्हें लिखा है जानी मानी लेखक, पत्रकार या अन्य क्षेत्रों से प्रमुख महिलाओं ने, जिनमें शामिल हैं इंदिरा माया गणेश, तिशानी दोषी, मंजु कपूर, अभिलाषा ओझा, सोनिया फलेरो और कल्पना शर्मा। यह जीवन कथाएँ उड़ीसा, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, असम, बिहार, कर्नाटक आदि विभिन्न राज्यों में संविधान के 73वें संशोधन के असर की जटिलता को समझने में सहायता करती हैं। साथ ही यह कहानियाँ यह भी बताती हैं कि ग्रामीण सामाजिक बदलाव इतना आसान नहीं है, लेकिन हो सकता है।

तमिलनाडू की चिन्नप्पा की जीवन कथा को तिशानी दोषी ने लिखा है। इस कहानी से महिला सरपंचों की कुछ कठिनाईयों को समझ सकते हैं:

“नम्बर चिन्नप्पा की कमजोरी हैं। अनपढ़ होने की वजह से उसके मन में गणित विषय के लिए भय है। जब ललिता ने उससे पूछा कि पंचायत के बजट में कितने पैसे हैं तो वह बता नहीं पायी, बोली, ‘रजिस्टर में लिखा होगा’। नरसिंहा, पंचायत का कलर्क बताने लगा कि छः लाख रुपये थे बजट में, कितना खर्च हुआ और किस चीज़ पर, और किस बात पर कितना खर्च होगा।

ललिता ने डाँटा कि ‘तुम्हें यह सब बातें पता होनी चाहिये। और तुम शीला, तुम्हारा अधिकार है कि तुम इन सब बातों के बारे में पूछो और जानो। तुम जब चाहो इन रजिस्टरों को जाँच सकती हो, क्या तुम्हें समझ नहीं आता?’

जब वापस चिन्नप्पा के घर की ओर जा रहे थे तो विदा लेने से पहले ललिता हताश हो कर बोली, ‘यह बहुत निराशा की बात है। इनको यह जानकारी ही नहीं है। यह कैसे हो सकता है कि यह सरपंच हो कर भी पैसे के बारे में न जाने? यही परेशानी है कि आखिरकार, बड़े फैसले यह अभी भी पुरुषों के हाथ छोड़ देती हैं।'”

सरपंच होने की क्या ज़म्मेदारी होती है, कैसे काम करना चाहिये, क्या इसकी जानकारी देना आवश्यक नहीं था, इन नये सरपंचों को? कल्पना शर्मा द्वारा लिखी बिहार की वीणा देवी की जीवन कथा में इस प्रश्न का उत्तर मिलता हैः

“क्या राज्य सरकार ने कोई ट्रेनिंग का आयोजन नहीं किया उन महिलाओं के लिए जो ग्राम स्वराज्य की राजनीति में पहली बार चुनी गयी थीं? किया क्यों नहीं, लेकिन दस मिनट की ट्रेनिंग में क्या समझते? उन्हें एक दिन के लिए पटना बुलाया गया था, बस का किराया दिया गया और रजिस्टर में दस्तख्त कराये गये कि वे लोग ट्रेनिंग के लिए आयी थीं। लेकिन हकीकत में उन्हें कुछ सिखाया बताया नहीं गया।”

वीणा को मुखिया के काम बारे में जानकारी मिली एक संवयंसेवी संस्था की सहायता से। उनका साथ दिया पुलिस सुप्रिंटेंडेंट और स्थानीय जिला मजिस्ट्रेट श्रीमति विजय लक्ष्मी नेः

“वह कहती थीं कि जब सब पुरुष बोल रहे हैं तो किसी महिला को भी बोलना चाहिये। मैं मना कर देती थी, लेकिन वह ज़ोर देती थीं कि मैं कुछ बोलूँ। उन्होंने मुझे सिखाया कि धन दौलत तो कभी तुम्हारे साथ होती है कभी नहीं होती, लेकिन विचारधारा असली चीज़ है। मेरे पास पैसा नहीं है, एक भिखारन, विधवा औरत हूँ लेकिन मैं दो बार चुनाव जीती हूँ, और जिसने एक लाख का खर्चा किया वह नहीं जीत पाया। मैं बस घर घर हाथ जोड़े हुए गयी। तो कौन बड़ा है, पैसा या विचारधारा?”

यह कहानियाँ बताती हैं कि गरीब, जन जातिय, दलित परिवारों से आयी बहुत सी महिलाएँ अनगिनत कठिनाईयों के बीच भी सदियों से परम्पराओं की रूढ़ियों में जकड़े ग्रामीण भारत को धीरे धीरे बदल रहीं हैं। कभी उनकी चेष्ठाएँ सफ़ल होती हैं, कभी असफ़ल। केवल प्रशिक्षण और जानकारी से भ्रष्टाचार और पैशेवर राजनीतिज्ञों के फन्दों को नहीं तोड़ा जा सकता। कई औरतों नें बदलते समाज की हिंसा की कीमत अपनी जान से चुकाई है। लेकिन एक बार यह बदलाव शुरु हुआ है जो किसी नदी की तरह अपना रास्ता निकाल ही लेगा, यही आशा की जा सकती है:

“सिकंदरा के लोगों के पास अपने मुखिया के लिए केवल प्रशंसा के शब्द ही हैं। गाँव के चौक में खड़े हुए तो लोगों नें पक्की सड़क और नालियों की ओर इशारा किया। अब उनके घर पानी से नहीं भरते। मुखिया ने तालाब बनवाया है और नदी से पानी लाने के लिए छोटी सी नहर भी जिससे गाँव में पानी आता है। पहले पानी के लिए दूर जाना पड़ता था। और बिना बिजली के गाँव में अब सूर्य की प्रकाश शक्ति से जलने वाली चार बत्तियाँ लगायी हैं जिससे अँधेरे के बाद सड़कों पर औरतों के लिए चलना आसान हो गया है। दलित बस्ती में भी इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत नये घर बन रहे हैं। गाँव में किसी से कोई शिकायत नहीं सुनने को मिली।”

मैं इस किताब को हर उस भारतीय से पढ़ने को कहुंगा जो यह समझते हैं कि वे भारत को जानते हैं और नये प्रगतिशील भारत का निर्माण कर रहे हैं। उनके मन में उन कंचमाओं और चिन्नप्पाओं के प्रति सम्मान जागेगा जो सुदूर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में, कई बार ऐसे खतरे उठाकर भी जिनसे शायद हम डर जायें, छोटे छोटे बदलाव ला रही हैं।