तो अधिकतर मुंबई वालों रविवार की सुस्ती भरी शुरुआत एक प्याली कॉफी और मुंबई मिरर से होती है पर ऐसे ही एक रविवार को मैंने खुद को महालक्ष्मी के सात रस्ता धोबी घाट में धोबियों की चहल पहल के बीच पाया।
यह जगह तकरीबन 150 वर्ष पुरानी है, इसे अंग्रेज़ वाइसरायों और अन्य वरिष्ठ अफसरों के कपड़े लत्ते धोने के लिए बनवाया गया था, और इतने वर्षों में यहाँ कुछ खास नहीं बदला। अंग्रेज़ों ने इस घाट को एक औद्योगिक संस्थान को लीज़ पर दिया, जिन्होंने स्वतन्त्रता के पश्चात लीज़ समाप्त होने पर इसे नगर निगम के हवाले कर दिया। नगर निगम ही घाट की अधिकतर हौदियों का मालिक है, और वे ही उन्हे धोबियों को किराए पर देते हैं। धोबियों की अनेक पीढ़ियाँ इस घाट पर रही हैं, जिन्होंने कपड़े धोने की प्रथा को अपने पूर्वजों से अपना लिया है, और शायद इसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को देंगे।
मुंबई के “पर्यटक” स्थलों में से एक, यह धोबीघाट वास्तव में एक निराली जगह है, जहाँ खुले आकाश तले कंक्रीट की हौदियों की कतारें ही कतारें हैं। हर कोठरीनुमा हौदी एक व्यक्ति को उसके कार्यस्थल के रूप में दिया जाता है, जहाँ ये इंसान कपड़ों को चाबुक की मानिंद लहराते हुये मानो गन्दे कपड़ों में से मैल का नामोनिशां मिटा देने पर आमादा मशीन में तब्दील हो जाते हैं।
पूरे शहर से मैले कपड़ों के ढ़ेर अलसुबह यहाँ आते है और साबुनी पानी से भरे कंक्रीट की टंकियों पर बेतहाशा पटके और निचोड़े जाते हैं। हर टंकी नालियों की शृंखला से जुड़ी होती है जहाँ एक धोबी पौ फटने से ले कर सांझ ढलने डटा रहता है। वह एक दिन में 200 कपड़े तक धो डालाता है।
धोबीघाट समुदायों के मुताबिक से बंटी हुई है, बड़ी हैरत होती है कि इतनी छोटी जगह में भी लोग जातपात और धर्म का ध्यान रख रहे हैं। यहाँ दो मुख्य समुदाय हैं — एक उत्तर प्रदेश से और दूसरा आन्ध्र प्रदेश से — और लगता नहीं कि उनमें आपस में अधिक मित्रता है। यहाँ कोई 200 धोबी परिवार रहते हैं पर धीरे धीरे लोगों के द्वारा जगह बेच कर शहर से बाहर जाने के कारण यह समुदाय पिछले कुछ वर्षों से सिमटता जा रहा है।
धोबियों की दशकों से चलती आ रही कार्य प्रणाली अचूक है। हर सुबह शाम स्थानीय धोबी कपड़े इकट्ठे करता है और लोकल ट्रेन या ठेले पर उन्हें शहर में फैले धोबी घाटों में से एक पर ले जाता है। सब से बड़ा धोबी घाट यहीं, यानि सात रस्ता महालक्ष्मी में, है जहाँ अधिकतर होटलों और अस्पतालों के कपड़े धुलने के लिए आते हैं। विरार जैसे दूर दराज़ इलाकों से भी कपड़े यहाँ धुलने आते हैं। कपड़ों पर हाथ से बने काले निशानों वाले टैग लगाए जाते हैं, और फिर उन्हें रंगों के हिसाब से छाँटा जाता है, धोया जाता है, सुखाया जाता है, इस्त्री की जाती है, और फिर दुबारा उन्हें छाँट कर वापस भेजने के लिए एकत्र कर लिया जाता है।
हर तरफ बच्चों के झुंड ये देख कर हैरान हो रहे होते हैं कि दुनिया वाले इन धोबियों के बारे में इतनी उत्सुक क्यों हैं और इन मैले कपड़ों के और धोबियों के दस्तानों से ढ़के उन हाथों के चित्र खींचने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं, जो दिन भर साबुन और पानी झेल कर कठोर हो गए हैं। इन में से कम ही बच्चे स्कूल भेजे जाते हैं, पर आखिरकार इन्हें ही परिवार का व्यवसाय अपनाना है और इन्हीं हौदियों में काम करना है। धोबियों की पत्नियाँ अपने मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं, जब एक आराम करे तो दूसरा उसकी जगह ले लेता है।
यह स्थान “रियैलिटी सैलानियों” को आकर्षित कर रहा है और कई सैलानी यहाँ की साबुन भरी और कॉस्टिक सोडा की गन्ध वाली तंग गलियों में विचरते नज़र आते हैं — छींटे उड़ाते, कपड़े पीटते हुए धोबियों की फोटो लेते हुए और खुद को गीला होने से बचाते हुए। उन्हें आज़ादी से फोटो लेने क्यों दिया जाता है, और हम भारतीयों को रोक कर पैसे क्यों मांगे जाते हैं, इस बात का अन्दाज़ा लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। बॉलीवुड वालों को भी इस स्थान ने आकर्षित किया है, और “मुन्ना भाई” जैसी हिट फिल्मों की शूटिंग भी यहाँ की हौदियों में हुई है। यहाँ के निवासी गर्व से कहते हैं कि बिल क्लिंटन तक ने इस में खास दिलचस्पी दिखाई थी।
महालक्ष्मी का धोबी घाट यूं तो दक्षिणी मुंबई के कंक्रीट जंगल और आलीशान इमारतों के बीच एक पानी में डूबा, साबुन की बू से भरा घाट भर है पर यह एक अनोखी सम्मोहक रंगभूमि भी है जिसमें वो सारे तत्व मौजूद हैं जो इस शहर को महानगर बनाते हैं।
सभी चित्र © परोमिता देब अरंग, चित्र कथ्य का हिन्दी में अनुवाद किया है सामयिकी के संपादक रमण कौल ने।
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक ऐसा पहलु जिसके बारे हम शायद ही कभी सोचते हैं। तस्वीरें और लेखन दोनों ही बहुत खूबसूरत हैं। तस्वीरें बेहद सरलता से जीवन का बखान करती हैं।